Saturday, April 10, 2010

'1084 की माँ' की अभिमंच प्रस्तुति

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के द्वितीय वर्ष के छात्रों द्वारा प्रस्तुत "1084 की माँ" को देखने के लिए जब मैं अभिमंच सभागार में पहुँच सब तरफ एक पीला प्रकाश छाया हुआ था और मंच को कुछ इस तरह 'सेट' किया गया था की कुछ हटाये-बढ़ाये बगैर वहां एक साथ कई जगहें और कई समय संभव हो सकते थे. यह सब नाटक के अंत तक बना रहने वाला था. मैं इस प्रस्तुति के साथ अंत तक गया मगर यह उन नाटकों में से नहीं था जो अंत तक देखने की वजह से अच्छे लगने लगते हैं.
                                                यह वृत्तचित्रात्मक प्रकृति का है ऐसा 'प्रस्तुति अवधारणक' या निर्देशक शांतनु बोस ब्रोशर में कहते हैं. लेकिन वृत्तचित्रों की सबसे बड़ी बात यह है कि उनमे बहुत ज्यादा यथार्थ होता है और बहुत कम प्रयोगशीलता. कहने का अर्थ यह है कि वृत्तचित्रों में बहुत ज्यादा प्रयोगशील नहीं हुआ जा सकता नाटकों में हुआ जा सकता है और 'शांतनु बोस' अपनी पूर्व-प्रस्तुतियों में होते भी रहे हैं. लेकिन यह प्रस्तुति अति प्रयोगशीलता कि वजह से लगभग ढह गयी है. पात्र बहुत अधिक हैं और वे अति अभिनय करते हैं(ऐसा 'महाश्वेता देवी' के उपन्यास और 'गोविन्द निहलानी' कि फिल्म में कत्तई नहीं करते हैं. यहाँ मैं कोई तुलना नहीं कर रहा हूँ बस जहाँ तक सोच पा रहा हूँ सोच रहा हूँ) पात्र कभी-कभी मंच और भाषा का (मंचीय भाषा का नहीं) अतिक्रमण करते हुए इस प्रस्तुति में वहां तक चले जाते हैं जहाँ से दर्शक उनके लिए बहुत दूर हो जाते हैं. एक बीस-इक्कीस वर्ष का लड़का खड़े हो कर बार-बार कहता था चलिए न डैड कुछ मज़ा नहीं आ रहा और वे दोनों कुछ ही देर में सभागार से बाहर चले जाते हैं उनके पीछे एक स्त्री और चार-पांच लोग और उनका भी संयम जवाब दे जाता है.
                        मुझे इस नाटक में सिर्फ दो चीज़ें अच्छी लगीं. सर्वप्रथम इसका 'ब्रोशर' और सबसे अंत में कलाकारों द्वारा किया गया अभिवादन. बाकि दो घंटे पैंतालिस मिनट मैं लगभग ऊबता रहा. 'एंटीगनी' और 'अचलायतन' को याद करता रहा. मध्यांतर से पहले कि प्रस्तुति में जबरन ठूंसे गए 'कुमार गन्धर्व' और 'बेगम अख्तर' को सुनता रहा और मध्यांतर के बाद मो. रफ़ी, किशोर कुमार, लता दीदी और आशा ताई के गए गीतों को सुनकर(जो प्रस्तुति के दो मुख्या पत्रों 'ब्रती' और 'नंदिनी' के प्रेम प्रसंग को समझाने के लिए प्रयोग किये गए थे) उस दृश्य के विषय में सोचता रहा जिसमे जॉय सेनगुप्ता(ब्रती) नंदिता दास(नंदिनी मित्र) को मायकोवस्की की एक कविता पड़कर सुना रहा है. यह दृश्य गोविन्द निहलानी की फिल्म को बौधिक ऊँचाइयों तक ले जाता है. मगर यह नाटक अपने सारे साहित्यिक और समाजशास्त्रिय तामझाम के बावजूद न कहीं बौधिक है न कहीं सरस न कहीं शास्त्रीय है न कहीं लोकप्रिय यह बस एक नीरस प्रस्तुति भर है.
                     इधर समाचारों के मुताबिक दंतेवाड़ा में अब तक का सबसे बड़ा नक्सली हमला हुआ है... यहाँ मैं प्रासंगिकताओं पर सोचता हूँ '1084 की माँ' यह उपन्यास मुझे महान लगता है. यहाँ मैं संभावनाओं पर सोचता हूँ '1084 की माँ' यह फिल्म मुझे महान लगती है. यहाँ मैं एक साथ प्रासंगिकताओं, संभावनाओं और प्रयोगों पर सोचता हूँ '1084 की माँ' यह प्रस्तुति मुझे बेहद निराश करती है.

                                                                                                                                   -अविनाश मिश्र

Calander

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