Sunday, September 26, 2010

दहलीज के पार भी एक अदद घर की तलाश

संसाधनों का आभाव कभी भी रचनात्मकता के आड़े नहीं आ सकता. रंगमच में ऐसे जुझारूपन एवं कर्मठता के उदाहरण बहुत हैं, पर फिल्म निर्माण में इसे दुस्साहस का ही नाम दिया जा सकता है. मात्र एक हैंडी कैम के सहारे फिल्म बनाने की जिद का ही नतीजा है 'द फ़ॉग'. युवा रंगकर्मी नरेश डबराल की ये फिल्म अपने तकनीकी स्तरों पर बिलकुल साधारण है पर कथ्य के स्तर पर प्रभावित करती है. फिल्म मेट्रो पोलिटन शहर  का दबाव, असुरक्षा के बढ़ते घेरे में सिमटे आम आदमी की अभिव्यक्ति है. फिल्म अपने वैयाकरनिक मापदंडों पर भले खरी न उतरे पर ये विचार  तो हमें झकझोरता  ही है की क्या हम सच में घर के बाहर खुली हवा में भयमुक्त रहने के लिए सहज हैं?
                                                  मैं धन्यवाद देता हूँ इनके इमानदार प्रयास के लिए.  इंतज़ार है आपकी प्रतिक्रियाओं का...

Sunday, April 11, 2010

शुभ-दीपावली

 गाड़ियाँ आती हैं
जाती हैं
बीच में खड़ा मैं
धूल की कणों से बना
एक तंतु की तरह
सुर्ख सच की तलाश में
आत्ममुग्ध सा हूँ

लैम्प पोस्ट की बरसती
रौशनी की फुहारें
गुदगुदाती हैं मन को
ले जाती हैं एक दीर्घ विस्मृति में
मस्तिष्क की पेशानियों को
विद्युत् दीयों की चमचमाहट
शाश्वत जगमगाहट का देती हैं
आभास

पटाखों की लड़ियाँ दंभ को
छोटे रिचार्जों की तरह
अन्दर समाती/डालती
अलविदा कहती हैं

धन की देवी को खरीदता
एक मानुष
गालियों की बोली सुनाता
मोलभाव करता है
फिर झोली में रखता
कुबेर होता है
सौ देवियों को बेचता
गालियों को खाता
अमानुष
आज खाता है सुबह के बच गए
आलू के तीन फांके
और करता है
लाभ-हानि पर विचार
और मैं
अब भी देखता हूँ
सुनहले पैकेटों से भरी
गाड़ियाँ आती हैं
जाती हैं.
              - दिलीप गुप्ता

Saturday, April 10, 2010

'1084 की माँ' की अभिमंच प्रस्तुति

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के द्वितीय वर्ष के छात्रों द्वारा प्रस्तुत "1084 की माँ" को देखने के लिए जब मैं अभिमंच सभागार में पहुँच सब तरफ एक पीला प्रकाश छाया हुआ था और मंच को कुछ इस तरह 'सेट' किया गया था की कुछ हटाये-बढ़ाये बगैर वहां एक साथ कई जगहें और कई समय संभव हो सकते थे. यह सब नाटक के अंत तक बना रहने वाला था. मैं इस प्रस्तुति के साथ अंत तक गया मगर यह उन नाटकों में से नहीं था जो अंत तक देखने की वजह से अच्छे लगने लगते हैं.
                                                यह वृत्तचित्रात्मक प्रकृति का है ऐसा 'प्रस्तुति अवधारणक' या निर्देशक शांतनु बोस ब्रोशर में कहते हैं. लेकिन वृत्तचित्रों की सबसे बड़ी बात यह है कि उनमे बहुत ज्यादा यथार्थ होता है और बहुत कम प्रयोगशीलता. कहने का अर्थ यह है कि वृत्तचित्रों में बहुत ज्यादा प्रयोगशील नहीं हुआ जा सकता नाटकों में हुआ जा सकता है और 'शांतनु बोस' अपनी पूर्व-प्रस्तुतियों में होते भी रहे हैं. लेकिन यह प्रस्तुति अति प्रयोगशीलता कि वजह से लगभग ढह गयी है. पात्र बहुत अधिक हैं और वे अति अभिनय करते हैं(ऐसा 'महाश्वेता देवी' के उपन्यास और 'गोविन्द निहलानी' कि फिल्म में कत्तई नहीं करते हैं. यहाँ मैं कोई तुलना नहीं कर रहा हूँ बस जहाँ तक सोच पा रहा हूँ सोच रहा हूँ) पात्र कभी-कभी मंच और भाषा का (मंचीय भाषा का नहीं) अतिक्रमण करते हुए इस प्रस्तुति में वहां तक चले जाते हैं जहाँ से दर्शक उनके लिए बहुत दूर हो जाते हैं. एक बीस-इक्कीस वर्ष का लड़का खड़े हो कर बार-बार कहता था चलिए न डैड कुछ मज़ा नहीं आ रहा और वे दोनों कुछ ही देर में सभागार से बाहर चले जाते हैं उनके पीछे एक स्त्री और चार-पांच लोग और उनका भी संयम जवाब दे जाता है.
                        मुझे इस नाटक में सिर्फ दो चीज़ें अच्छी लगीं. सर्वप्रथम इसका 'ब्रोशर' और सबसे अंत में कलाकारों द्वारा किया गया अभिवादन. बाकि दो घंटे पैंतालिस मिनट मैं लगभग ऊबता रहा. 'एंटीगनी' और 'अचलायतन' को याद करता रहा. मध्यांतर से पहले कि प्रस्तुति में जबरन ठूंसे गए 'कुमार गन्धर्व' और 'बेगम अख्तर' को सुनता रहा और मध्यांतर के बाद मो. रफ़ी, किशोर कुमार, लता दीदी और आशा ताई के गए गीतों को सुनकर(जो प्रस्तुति के दो मुख्या पत्रों 'ब्रती' और 'नंदिनी' के प्रेम प्रसंग को समझाने के लिए प्रयोग किये गए थे) उस दृश्य के विषय में सोचता रहा जिसमे जॉय सेनगुप्ता(ब्रती) नंदिता दास(नंदिनी मित्र) को मायकोवस्की की एक कविता पड़कर सुना रहा है. यह दृश्य गोविन्द निहलानी की फिल्म को बौधिक ऊँचाइयों तक ले जाता है. मगर यह नाटक अपने सारे साहित्यिक और समाजशास्त्रिय तामझाम के बावजूद न कहीं बौधिक है न कहीं सरस न कहीं शास्त्रीय है न कहीं लोकप्रिय यह बस एक नीरस प्रस्तुति भर है.
                     इधर समाचारों के मुताबिक दंतेवाड़ा में अब तक का सबसे बड़ा नक्सली हमला हुआ है... यहाँ मैं प्रासंगिकताओं पर सोचता हूँ '1084 की माँ' यह उपन्यास मुझे महान लगता है. यहाँ मैं संभावनाओं पर सोचता हूँ '1084 की माँ' यह फिल्म मुझे महान लगती है. यहाँ मैं एक साथ प्रासंगिकताओं, संभावनाओं और प्रयोगों पर सोचता हूँ '1084 की माँ' यह प्रस्तुति मुझे बेहद निराश करती है.

                                                                                                                                   -अविनाश मिश्र

आफ्टर थर्ड बेल

वे अभिवादन में झुकते थे
जबकि इतना निर्जन हुआ करता था सभागार
की वे लगभग खुद के लिए ही खेल रहे होते थे

एक विराट खालीपन था और उसमे एक मध्यांतर भी
जहाँ वे सतत प्रस्तुति के पूर्वाभ्यास में ही रहते थे

सृष्टि के सबसे प्राचीनतम नाट्य सिद्धांतों और उनमे समाहित
प्रार्थनाएं, संभावनाएं, प्रक्रियाएं, लक्ष्य और निष्कर्ष
सब कुछ को मंच पर संभव करते थे वे
एक समय में एक नगर के एक सरल नागरिकशास्त्र से बचकर
स्वयं को आश्चर्यों और कल्पनालोक के
वृहत्तर परिवेश में रद्द करते हुए
वे बहुत बहुत दुर्लभ थे

मैं नींद में चलते हुए पहुँचता था
उनकी प्रस्तुतियों के अन्धकार में
जहाँ अभिनय वास्तविक हो उठता था
और वास्तविकताएं अश्लील

वे अपने निर्धारित समय से बहुत पीछे होने के दर्प में थे
यह उनका प्रतिभाष्य था एक वाचाल समय के विरुद्ध

जहाँ नाटकीयता अर्जित नहीं करनी पड़ती थी
वह जीवन में ही थी अन्य महत्वपूर्ण वास्तविकताओं की तरह .
                                                                   -अविनाश मिश्र

                           (अविनाश मिश्र की यह अप्रकाशित कविता है)

समीप होते हुए

वे खड़े  हैं
बाहें फैलाये..
हमें आलिंगनबद्ध करने को
आतुर
अपने शोरूम पर करते हैं
आकर्षक प्यार का
प्रदर्शन
और हम
इस कंक्रीटों के जंगल में
उनके प्यार को
चिरस्थायी समझ
सानंदित होते हैं. 
                      -दिलीप गुप्ता

Wednesday, March 31, 2010

Ideas for creative theate

Theatre is interaction, constantly making links, connections with people, ideas, reality. There is no one single theatre and there cannot be one theatre for all people, because different types of people come to it. A variety of approaches- of making, quality, force is necessary. in the theatre, everything is a special case. the general classifications like 'European' or 'Asian' theatre, 'classical', 'traditional' or 'modern' theatre, mean nothing. it is always your theatre, your theatre, your theatre. Every single situation is different and particular and each person's truth is his or her own. significant theatre is, therefore, created only in trying to find this specific truth. For such theatre, both dogmatism and casualness are death. creativity comes from the provocation to new ideas. For this constant preparation of body, voice and of the group and improvisation based on imagination are essential.   - Peter Brook
from 'From the wings' by Nemichandra jain

Khalil Zibran ko Padte hue....

हम सब बंदी हैं. हाँ, हममे से कुछ झरोखेयुक्त कारागृहों में बंद हैं और कुछ बिना झरोखे वाले कारागृहों में. 

Calander

अंधेरे में

मुक्तिबोध की कालजयी कविता 'अंधेरे में' के प्रकाशन का यह पचासवाँ वर्ष है। इस आधी सदी में हमने अपने लोकतंत्र में इस कविता को क्रमशः...