Thursday, October 4, 2012

‘भारंगम’ : एनएसडी का, एनएसडी के लिए, एनएसडी के द्वारा



गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर की 150वीं जयंती के नाम पर भारत सरकार गुजरे एक साल से भारत के तमाम सांस्कृतिक केन्द्रों व उपकेन्द्रों को खैरात बांटने में लगी हुई है। इसका नतीजा यह हुआ कि कुकुरमुत्ते की तरह  कई ऐसी संस्थाएं इस खैरात को लपकने के लिए उग आयीं और रविन्द्र नाथ टैगोर के नाम का ढिंढोरा पीटने लगीं, जिन्हें वास्तविक रूप से टैगोर से नहीं बल्कि सरकारी खैरात से मतलब था भारतीय रंगमंच की प्रतिनिधि(?) संस्था कहे जाने वाले ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’(एनएसडी) ने भी इस बार होने वाले 14वें ‘भारत रंग महोत्सव’ (भारंगम) की थीम के लिए टैगोर की इसी 150वीं जयंती को चुना और टैगोर विशेष के नाम पर  ‘भारंगम’ में शामिल कुल 96 प्रस्तुतियों में टैगोर के जीवन और उनकी रचनाओं पर आधारित सिर्फ 14 प्रस्तुतियों को चुना (इसमें उद्घाटन प्रस्तुति, रतन थियम निर्देशित नाटक ‘द किंग ऑफ द डार्क चैंबर’ शामिल नहीं है) आश्चर्य की बात तो यह है कि इन 14 प्रस्तुतियों में कुछेक प्रस्तुतियों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश प्रस्तुतियां केवल खैरात बटोरने की लीक पर ही चलती हुई नजर आयीं कई लोगों के मन में प्रश्न उठ सकता है कि फिर ऐसी प्रस्तुतियों को इतने बड़े समारोह में शामिल कैसे कर लिया गया तो इसका जवाब किसी के पास नहीं है, क्योंकि पिछले कई ‘भारंगम’ से यह बात स्पष्ट हो गयी है कि नाटकों की उत्कृष्टता और ‘भारंगम’ में कोई साम्य नहीं है ‘भारंगम’ अब अपने कुछ खास लोगों के लिए एक ‘प्रोमोशनल इवेंट’ के रूप में तब्दील हो चुका है
 इस 14वें भारंगम के उद्घाटन समारोह में केन्द्रीय मंत्री कुमारी शैलजा ने अपने उद्घाटन भाषण में ‘एनएसडी’ को भारत में एक बेहतर रंगमंचीय माहौल बनाने के लिए धन्यवाद देते हुए ‘एनएसडी’ को और प्रोत्साहन देने की और हरसंभव आर्थिक मदद देते रहने की बात दोहराई क्या ‘एनएसडी’ से इतर भारत में  जो रंगमंच हो रहा है, वह रंगमंच नहीं है? क्या रंगमंच के सारे व्याकरण और सारी परिभाषाएं ‘एनएसडी’ ही तय करती है? बल्कि सच्चाई तो यह है कि यदि बेहतर और प्रतिबद्ध रंगकर्म कहीं हो रहा है, तो वह भारत के छोटे=छोटे शहरों व कस्बों में ही हो रहा है, जहां रंगमंच किसी सरकारी मदद पर नहीं, बल्कि जन सहयोग और कलाकारों व संस्कृतिकर्मियों की जिजीविषा तथा प्रतिबद्धता की वजह से जिंदा है
  जिस समय देश की राजधानी में एशियाई रंगमंच का कुंभ कहा जाने वाला ‘भारत रंग महोत्सव’ अपने 14वें संस्करण में मशगूल था, तब इसी के आसपास बिहार के एक शहर बेगुसराय में जन सहयोग और जनता की सीधी भागीदारी से पांच दिन का ‘रंग-ए-माहौल’ नाम से एक नाट्य समारोह आयोजित कर युवा रंगकर्मी प्रवीण कुमार गुंजन एक बेहतर रंगमंचीय वातावरण तैयार कर रहे थे रायगढ़ में इप्टा 18 साल से राष्ट्रीय नाट्य समारोह मना रही है और रंगमंच में एक सकारात्मक भूमिका अदा कर रही है तब ऐसे में क्या हमें इस योगदान को योगदान नहीं कहना चाहिए ? दरअसल ‘एनएसडी’ अघोषित तौर पर देश में एक ऐसा माहौल तैयार करने में लगी हुई है, जहां रंगमंच एनएसडी का, एनएसडी के लिए एनएसडी के द्वारा हो
 टैगोर की 150वीं जयंती पर फोकस 14वें ‘भारंगम’ में टैगोर के जीवन और उनके रचनाकर्म पर आधारित 14 नाट्य प्रस्तुतियों के अलावा उनके कृतित्व पर एनएसडी  परिसर में एक चित्र प्रदर्शनी भी लगायी गयी अंतर्राष्ट्रीय खंड को सामयिक पोलिश रंगमंच पर केंद्रित करते हुए ‘भारंगम’ में तीन पोलिश नाटक ‘ग्रोटोवस्की-एन अटेम्प्ट टू रिट्रीट’‘कोरस ऑफ वूमेन’ और ‘इन द नेम ऑफ जकूब एस.’ के अलावा अन्य विदेशी नाटकों में श्रीलंका, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैण्ड, चीन, इटली, जापान, पाकिस्तान, इजराइल, तुर्की, अफगानिस्तान, नेपाल, और बांग्लादेश की प्रस्तुतियों को शामिल किया गया
 अपने कलात्मक दृश्य प्रभाव के लिए दुनिया भर में मशहूर रंग निर्देशक रतन थियम की प्रस्तुति द किंग ऑफ द डार्क चैम्बर से इस महोत्सव की शुरुआत हुई हालांकि इस बार भी ‘एनएसडी’  की आदत बन चुकी गलतियों की वजह से दर्शकों की भारी संख्या उद्दघाटन समारोह देखने से वंचित रह गयीइसका प्रमुख कारण रहा प्रेक्षागृह की क्षमता से दुगनी मात्रा में आमंत्रण पत्र बांटना दर्शकों के भारी विरोध की वजह से इस बार प्रेक्षागृह के बाहर एक अलग ही नाटकीय माहौल पैदा हुआहालांकि बाद में रतन थियम के नाटक की दुबारा प्रस्तुति की घोषणा से स्थिति नियंत्रण में आयी टैगोर के नाटक राजा पर आधारित नाटक द किंग ऑफ द डार्क चैंबर में रतन थियम सदा की तरह ही फिर एक बार अपनी रंगत में दिखे रतन थियम के नाटक की भाषा मणिपुरी होते हुए भी, मणिपुरी न जानने वाले दर्शकों के रंगास्वाद में कहीं से भी कोई अवरोध उत्पन्न नहीं हुआ उनके नाटकों में विजुअल लैंग्वेज इतनी प्रभावी होती है कि दर्शक मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रह पाता टैगोर के दर्शन एवं व्यष्टि और समष्टि के अंतर्संबंधों पर प्रकाश डालता यह नाटक मंच पर एक नए महाकाव्य को घटित करता है नाटक का एक-एक दृश्य ऐसा प्रतीत होता है मानो हमारी आंखों के सामने किसी कवि की कविता दृश्य रूप में सजीव हो उठी हो नाटक में अभिनेताओं की दैहिक भाषा, नृत्यमूलक गतियांपार्श्व संगीत, प्रकाशकीय रंगों का जादुई आलोक,  वस्त्र योजना और हर क्षण चमत्कृत करने वाली दृश्य संरचना एक ऐसे रंग अनुभव का सृजन करती है, जिसकी अमिट छाप एक लंबे समय तक दर्शकों के  दिलो-दिमाग पर रहेगी रंगमंचीय सीमाओं की वर्जनाओं को तोड़ने वाले रतन थियम किसी भी लिखित टेक्स्ट को एक ऐसा कलात्मक और सांस्कृतिक स्वरुप देते हैं जो अपने तरह का एक अलग ही रंग संसार सृजित करता है  और आधुनिक भारतीय रंग भाषा को एक नया आयाम देता है, चाहे इब्सन लिखित उनका व्हेन वी डेड अवेकन हो या हे नुंगशिबी पृथ्वी हो या नाइन हिल्स वन वैली हो या अन्य नाटक सबमें एक नया रंग आस्वाद मिलता है टैगोर लिखित इस प्रतीकात्मक नाटक किंग ऑफ द डार्क चैम्बर में भी रतन थियम एक नयी रंग भाषा का सृजन करते हुए एक मौलिक  कलात्मक, काव्यात्मक चमत्कार को घटित करते हैं
   इस आयोजन में कई ऐसे निर्देशकों की प्रस्तुतियों को भी शामिल किया गया जिनकी प्रस्तुतियों को पहले मंचन के दौरान ही भारी आलोचना का दंश झेलना पड़ा इनमे नीलम मान सिंह चौधरी और रोबिन दास जैसे बड़े नाम भी शामिल हैं, जो क्रमशः एनएसडी रंगमंडल की प्रस्तुति  ब्लड वेडिंग और स्याह चन्द्र का फ्यूज बल्ब के साथ आमंत्रित थे ऐसी प्रस्तुतियों की संख्या पिछले साल की भांति इस बार भी  ज्यादा रही इसके बरक्स इस बार बड़े और वरिष्ठ नामों के अपेक्षा युवा निर्देशकों का काम ज्यादा उर्जावान नजर आया ऐसी ही एक प्रस्तुति थी प्रसिद्द साहित्यकार गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ की कहानी समझौतापर आधारित एक पात्रीय नाटक समझौता’ सुमन कुमार के इस नाट्य रूपांतरण को निर्देशित किया था युवा निर्देशक प्रवीण कुमार गुंजन ने और इसे अपने जीवंत अभिनय से संवारा उर्जावान अभिनेता मानवेंद्र त्रिपाठी ने इस नाटक के असर का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि नाटक के अंत में दर्शक खड़े होकर  लगातार ताली बजाते रहे, आखिरकार उद्घोषक को अपनी उद्घोषणा के लिए निवेदन करना पड़ा कि दर्शक थोड़ी देर के लिए ताली बजाना रोक लें, यहां तक कि दर्शकों की मंत्रमुग्धता कम करने के लिए मानवेंद्र को नाटक की समाप्ति के बाद उनका अभिवादन लेटकर भी करना पड़ा मानवेंद्र इस नाटक में अभिनय की एक ऐसी ऊंचाई छूते हैं जहां दर्शकों का साक्षात्कार एक सम्पूर्ण अभिनेता से होता है इस नाटक में मानवेंद्र अभिनय के सारे अवयवों को एक साथ लेकर मंच पर उतरते हैं और उसे बड़ी तन्मयता के साथ साधते है
 इसके साथ ही पिछले कुछ सालों से अपनी ओर ध्यान खींचने वाले युवा निर्देशकों में मोहित तकलकर (गजब कहानी), हेस्नम तोम्बा(हंग्री स्टोन), सुनील शानबाग(स्टोरीज इन ए सांग) और मनीष मित्र(जर्नी टू डाकघर) ने भी इस बार इस महोत्सव में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया मोहित तकलकर इस बार नोबल पुरस्कार विजेता जोस सरामागो के उपन्यास द एलिफेन्ट्स जर्नी पर आधारित नाटक गजब कहानी के साथ उपस्थित थे यह नाटक एक हाथी के भारत से लिस्बन और लिस्बन से वियेना तक की यात्रा को कहानी का आधार बनाते हुए  वर्ग संघर्ष और धर्मान्धता की पड़ताल बड़ी संजीदगी के साथ करता है रंगमंच की आंतरिक शक्तियों पर दृढ़ता से विश्वास करने वाले मोहित तकलकर अपनी इस  प्रस्तुति में दृश्य संयोजन के लिए  मंच विधान, प्रकाश और मंच सामग्रियों  का सांकेतिक और बिम्बात्मक प्रयोग करते हैं, जो कथ्य को और मजबूती प्रदान करता है मोहित प्रस्तुति के दौरान ही नहीं बल्कि प्रस्तुति के अंतिम दृश्य  में भी प्रभाव छोड़ते है वे नाटक के अंत में खाली मंच पर एक ऐसा शून्य सृजित करते हैं जो नाटक के बाद भी काफी लंबे समय तक कायम रहता है
   हेस्नम तोम्बा मणिपुर के ख्यातिलब्ध निर्देशक एच. कन्हाईलाल और अभिनेत्री सावित्री हेस्नम के पुत्र हैंरंगमंच उनके रक्त में है, विरासत में मिले इस रंगमंचीय कौशल को अपने अनुभव से सींचते हुए हेस्नम तोम्बा अपनी प्रस्तुतियों में अपनी  मौलिकता को मुखरित करते हैंटैगोर की कहानी क्षुधितो पाषाणपर आधारित उनका नाटक हंग्री स्टोन इस मौलिकता का एक अच्छा उदाहरण है वे रंगमंचीय शिल्प के स्तर पर अपने पिता की परंपरा का निर्वाह तो करते हैं, लेकिन रंग भाषा के स्तर पर बिलकुल मौलिक रहते हुए अपनी पिछली प्रस्तुतियों कॉटन 55 पालिएस्टर 84‘सेक्स मारैलिटी एंड सेंसरशिप’ और ड्रीम्स आफ तालीम से दर्शकों को  प्रभावित करने वाले निर्देशक सुनील शानबाग इस बार भी अपनी प्रस्तुति स्टोरीज इन ए  सांग’ के साथ अपने रंग में दिखे सुनील के इस बार के नाटक का विषय था-संगीत इस सांगीतिक प्रस्तुति में  सुनील ने आधुनिक, शास्त्रीय और लोकपद्धतियों का जो कोलाज रचा, वह एक बिलकुल नए अंदाज में मंच पर दीखता हैसुनील की खासियत है कि वे अपने नाटक के लिए विषय का चुनाव बड़ी सतर्कता के साथ करते है और उसी में से वे नाट्य प्रस्तुति के लिए उसके शिल्प और शैली को निर्धारित करते हैं। भारतीय रंगमंच में अनेक शैलियां प्रचलित हैं, लेकिन यहां सुनील की यह प्रस्तुति रंगमंच का इस्तेमाल कजरी, ठुमरी, दादरा, ख्याल इत्यादि संगीत शैलियों का इतिहास बताने के लिए करती है। 
 फिल्मी सितारों से सजी प्रस्तुतियां इस बार भी भारंगम में मौजूद थीं कल्लू मामा के नाम से मशहूर अभिनेता व निर्देशक सौरभ शुक्ला नील साइमन के लास्ट ऑफ द रेड हॉट लवर्सपर आधारित नाटक रेड हॉट के साथ उपस्थित थे इस नाटक में सौरभ शुक्ला मुख्य भूमिका में थे सौरभ जहां इस नाटक में निर्देशक के तौर पर सूक्ष्मतर गुत्थियों को सामने लाने में सफल रहे वहीं अभिनेता के तौर पर भी बेहद उर्जावान और जीवंत लगे भारतीय रंगमंच में आधुनिकता के जनक मोहन राकेश के कालजयी  नाटक आधे अधूरे को लेकर लिलेट दुबे भी इस बार ‘भारंगम’ में शामिल हुईं रंगमंच व फिल्म अभिनेता मोहन अगाशे और लिलेट दुबे अभिनीत यह नाटक भी एक स्तरीय रंग अनुभव के आस्वाद की वजह बना बैंडिट क्वीनफेम सीमा विश्वास भी टैगोर की रचना स्त्रीर पात्र में अपने एकल अभिनय के साथ उपस्थित थीं कुछ और सराहनीय प्रस्तुतियों  में ग्रोटोवस्की- एन अटेम्प्ट टू रिट्रीट(पोलैंड), एक्टर्स आर नॉट अलाउड’ (पुद्दुचेरी विश्वविद्यालय), पेकिंग ओपेरा (चीन) गोल्डन ड्रैगन’ (इंग्लैण्ड), प्रिया बावरी(वामन केंद्रे)आज रंग है (गोपाल तिवारी, पूर्वा नरेश) रहीं
हाल के वर्षों में नक्सल गतिविधियों के लिए चर्चित छत्तीसगढ़ के बस्तर का एक और भी चेहरा है जो इसकी इस छवि के ठीक विपरीत हैसंगीनों की आवाज से दूर आदिवासी समूह का एक ऐसा निनाद जहां जमीन से उठते स्वर सारे आकाश को गुंजायमान कर रहे हैं और सांझी तहजीब और अमन का सन्देश बुलंद कर रहे हैं, यहां बात हो रही है इस बार के ‘भारंगम’ का विशेष आकर्षण रहा आदिवासिओं के नृत्य संगीत और वादन के समूह ‘बस्तर बैंड’ की ‘बस्तर बैंड’ की इस प्रस्तुति ने आदिवासी परंपरा में प्रयुक्त उन दुर्लभप्राय वाद्य यंत्रो और नृत्यों से एक ऐसा कोलाज रचा जो वाकई विस्मयकारी था ‘बस्तर बैंड’ मूलतः बस्तर के आदिम जनजातियों की प्रस्तुति है, जिसमें गाथा भी है, आलाप भी है गायन भी है और नृत्य भी इस ‘बस्तर बैंड’ में बस्तर के आदिवासी समूह के लगभग विलुप्त हो गए 40 से अधिक वाद्य यन्त्र है, जिसमें  तार से बने, मुँह से फूंक कर बजाने वाले और हाथ व लकड़ी से बजाने वाले यंत्र शामिल हैं ‘बस्तर बैंड’ सही मायने में लुप्त होते पारंपरिक, लोक और आदिवासी वाद्यों की सामूहिक अभिव्यक्ति है इस बैंड को देखते हुए यही आशंका बार-बार मन में उठती है कि इस खरीदने-बेचने की रेलमपेल में कहीं इसे अनगढ़ से सुगढ़ बनाने के चक्कर में इस पर बाजार की गिद्ध दृष्टि न पड़ जाए
 विगत कुछ सालों से ‘भारंगम’ का एक अभिन्न अंग बन चुका ‘फूड हब’ इस बार भी पूरे महोत्सव के दौरान आकर्षण का केंद्र बना रहा मंचीय प्रस्तुतियों के इतर यह  ‘फूड हब’ हर शाम बाउल, ग़जल, कव्वाली, सूफी और अन्य  सांगीतिक कार्यक्रमों को प्रस्तुत करता रहा, इसके साथ ही यहां वैसे लोग भी नजर आए जो हॉउसफुल और सर खपाऊ व उबाऊ नाटक को बीच में ही छोड़कर चाय व काफी की चुस्कियों के साथ अपने  दिल और दिमाग हल्का करने को ज्यादा तरजीह देते हैं 
  इस बार भी ‘भारंगम’ की ज्यादातर प्रस्तुतियों का स्तर औसत ही रहा प्रयोग के नाम पर कुछ भी करते नाटकों की संख्या इस बार भी ज्यादा थींकुल 96 प्रस्तुतियों में आधी प्रस्तुतियां भी ऐसी नहीं रहीं, जिन्हें बेहतरीन प्रस्तुति कहा जा सके यानी इस बार भी तमाम झूठे वायदों और कवायदों की लीपापोती करने तथा ‘स्तरीय रंगमंच’ के नाम पर कुछ भी दिखाने के लिए याद किया जाएगा, इस बार का ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ द्वारा प्रायोजित 14वा ‘भारत रंग महोत्सव’  


(भारंगम 2012 पर यह रिपोर्टनुमा आलेख लखनऊ से प्रकाशित मासिक समाचार पत्रिका 'सामना' के फ़रवरी 2012 अंक में प्रकाशित हो चुका है. लेकिन इस पर पर्याप्त ध्यान न जा पाने की वजह से मैं इसे यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ ताकि यह वेब पर भी उपलब्ध हो सके.)




  
  

Calander

अंधेरे में

मुक्तिबोध की कालजयी कविता 'अंधेरे में' के प्रकाशन का यह पचासवाँ वर्ष है। इस आधी सदी में हमने अपने लोकतंत्र में इस कविता को क्रमशः...