Sunday, April 11, 2010

शुभ-दीपावली

 गाड़ियाँ आती हैं
जाती हैं
बीच में खड़ा मैं
धूल की कणों से बना
एक तंतु की तरह
सुर्ख सच की तलाश में
आत्ममुग्ध सा हूँ

लैम्प पोस्ट की बरसती
रौशनी की फुहारें
गुदगुदाती हैं मन को
ले जाती हैं एक दीर्घ विस्मृति में
मस्तिष्क की पेशानियों को
विद्युत् दीयों की चमचमाहट
शाश्वत जगमगाहट का देती हैं
आभास

पटाखों की लड़ियाँ दंभ को
छोटे रिचार्जों की तरह
अन्दर समाती/डालती
अलविदा कहती हैं

धन की देवी को खरीदता
एक मानुष
गालियों की बोली सुनाता
मोलभाव करता है
फिर झोली में रखता
कुबेर होता है
सौ देवियों को बेचता
गालियों को खाता
अमानुष
आज खाता है सुबह के बच गए
आलू के तीन फांके
और करता है
लाभ-हानि पर विचार
और मैं
अब भी देखता हूँ
सुनहले पैकेटों से भरी
गाड़ियाँ आती हैं
जाती हैं.
              - दिलीप गुप्ता

Calander

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