कुछ दिन बाद शायद ऐसा हो कि आपको 'नाटक' नहीं, नाटक के नाम पर केवल 'प्रयोग
ही प्रयोग' देखने को मिलें। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय अपनी तमाम आलोचनाओं के बावजूद इस कोशिश में संस्कृति मंत्रालय के सहयोग से लगा
हुआ है। गए दिनों एनएसडी की डाइरेक्टर अनुराधा कपूर के निर्देशन में तृतीय वर्ष के
छात्रों द्वारा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के परिसर में प्रस्तुत
नाटक 'डॉक्टर जैकिल एंड हाइड' ने 'रंगमंच में प्रयोग' पर एक नई बहस ही छेड़ दी थी। और
अब 5 जनवरी से शुरू हो रहा ‘भारंगम 2013’(15वां भारत रंग महोत्सव) पॉपुलर थिएटर और
मंटो की रचनाओं को केंद्र में रखने का शोर मचाते हुए विशेष रूप से थिएटर में
इंस्टालेशन और प्रयोग की वकालत करता हुआ नजर आने वाला है। ऐसे में लार्ज बजट, लार्ज सेट, लार्ज
स्टाफ, लार्ज कंटेंट और इस सबके बीच चौंकाते हुए प्रयोग...
ऐसी पहचान रखने वाले और भारतीय युवा रंगमंच को एक 'भव्यता' देने वाले रूद्रदीप चक्रवर्ती
से एक बातचीत जो रूद्रदीप के अमेरिका जाने से पहले की गई थी, यहां पेश है...। बातचीत की है अविनाश मिश्र ने...
आपने कब सोचा कि आपको ‘राष्ट्रीय’ नाट्य विद्यालय’ में
दाखिला लेने के लिए प्रयास करना चाहिए?
देखिए, मेरा बचपन उड़ीसा में
बीता जहां ‘जात्रा’ देखते हुए मेरी
रंगमंच में दिलचस्पी पैदा हुई। 1994 से 2000 तक मैंने कोलकाता में ‘चर्चा थिएटर अकादमी’ से जुड़कर नाटक किए। इसके बाद के
दो वर्षों में मैं श्यामानंद जालान के ग्रुप ‘पदातिक’
से जुड़ा रहा। यहां मैंने सीखा कि थिएटर करने और समझने के लिए जरूरी
है, हिंदी थिएटर से जुड़ना। इस दौरान मैंने सत्यदेव दुबे,
टिम सप्पल, बादल सरकार, कन्हाईलाल
जैसे विश्वप्रसिद्ध रंग व्यक्तित्वों के साथ वर्कशॉप की। इसके बाद फिर कुछ ऐसी सोच
बनी कि मुझे ‘एनएसडी’ में जाकर पढ़ना
चाहिए। इसलिए मैं 2002 में ‘एनएसडी’ आ
गया, लेकिन ‘एनएसडी’ में आने से पहले ही मैं काफी थिएटर कर चुका था।
जब आप ‘एनएसडी’ में थे तब वहां कुछ निगेटिव चीजें भी हुईं?
हां, ऐसी चीजें हुईं। दरअसल, उस दौरान ‘एनएसडी’
को केंद्रीय विश्वविद्यालय का स्वरूप देने
की कोशिशें हो रही थीं, इसका हमने विरोध किया। इस कोशिश में
हम कुछ हद तक अराजक भी हुए। मैं ‘एनएसडी’
छोड़कर भी चला गया। अंततः यह प्रस्ताव वापस लिया गया। हमने इसका
विरोध इसलिए किया क्योंकि हम जानते थे कि केंद्रीय विश्वविद्यालय में तब्दील होने
के बाद ‘एनएसडी’ में रंगमंच का स्तर
बहुत गिर जाएगा।
विलियम
डेलरिम्पल के उपन्यास ‘सिटी ऑव् डिजींस’ पर
नाटक करने का खयाल आपको कैसे आया?
जैसाकि आप जानते
हैं कि यह उपन्यास देल्ही कल्चर पर है, तो पहली वजह तो यही रही क्योंकि मैं एक
देल्ही बेस्ड प्ले करना चाहता था। मैं दिल्ली को बराबर जानना चाहता रहा हूं,
इसी कोशिश में यह उपन्यास पढ़ते हुए मुझे
इसमें कुछ रंगमंचीय संभावनाएं नजर आईं। विलियम
डेलरिम्पल हालांकि शुरू में यह समझ नहीं पाए कि इस
उपन्यास पर नाटक कैसे किया जाएगा, लेकिन जब उन्होंने मेरी
तैयारी देखी, तो फिर उन्होंने अपना पूरा सहयोग मुझे दिया। ‘सिटी ऑव् डिजींस’ में मैंने जौहरा सहगल और टॉम अल्टर
जैसी नामी हस्तियों को एक साथ लेकर काम किया। यह सब
मेरे लिए किसी अचीवमेंट से कम नहीं था।
आपके बारे में
एक बात कही जाती है कि आप कम संसाधनों में नाटक नहीं कर सकते?
ऐसा नहीं है।
मैं स्टूडेंट्स के साथ प्ले करता हूं, जहां ज्यादा संसाधन नहीं होते,
लेकिन इससे बाहर इसे संयोग ही समझें कि मुझे अब तक जितने भी
प्रोजेक्ट्स मिले हैं, वे सब बेहद लार्ज स्केल के थे। वहां
बिग बजट होने की वजह से चमक-दमक और स्टाफ ज्यादा था। इस वजह से शायद लोगों ने मेरे
बारे में ऐसी राय बना ली है।
‘महाभारत’
भी बहुत बड़े बजट का प्ले था, इस प्ले के बारे
में कुछ बताएं?
‘महाभारत’
का बजट 2 करोड़ रुपए का था। इसे बॉबी बेदी
ने फाइनेंस किया था। ‘सिटी ऑव् डिजींस’ के बाद मेरे पास जो पांच-छह प्रोजेक्ट्स थे, यह
उनमें से एक था। मैं इसके साथ गया। इसे करते हुए मेरे ऊपर बहुत दबाव था, इस प्ले को सफल बनाने का। लेकिन सब कुछ ठीक-ठाक रहा, इसने 21 हाउसफुल नाइट्स के साथ सिरीफोर्ट ऑडीटोरियम में धूम मचा दी। इसे
किंगफिशर ने स्पांसर किया था और इसके टिकट 500 से 1500 रुपए तक थे, तब यह हालत थी।
थिएटर में हाल
ही में कई नाम उभरकर सामने आए हैं, आप किनमें ज्यादा संभावनाएं देखते हैं?
कई नाम हैं।
आजकल कई तरह के एक्सपेरिमेंट हो रहे हैं. मुझे निखिल मेहता, अभिषेक मजमूदार, शंकर वेंकटेश्वरन, दीपांक शिवारमन, मोहित तकलकर, अर्पिता घोष, अवंतिका और रेहान इंजीनियर का काम अच्छा लगता है।
आपने अभी
एक्सपेरिमेंट्स की बात की, यह सब ‘एनएसडी’ द्वारा
प्रायोजित ‘भारत रंग महोत्सव’ में गए
कुछ एक वर्षों से बहुत देखने को मिल रहा है, इससे रंगमंच का
मेन कंटेंट और देखने का आनंद कम हुआ है। केवल प्रयोग के नाम पर प्रयोग हो रहे हैं,
इसको आप कैसे देखते हैं?
हां, ऐसा हो रहा है, प्रयोग के लिए प्रयोग। लेकिन इससे कई नई चीजें भी निकलकर आ रही हैं। खराब
यह लगता है कि ‘एनएसडी’ केवल ऐसी ही
चीजों को प्रमोट कर रहा है। इससे एक तरह की फेकनेस पैदा
हो रही है, वह भी ‘भारंगम’ जैसे महोत्सव में। यदि ‘एनएसडी’ को केवल ऐसे ही रंगमंच को प्रमोट करना है तो उसे केवल एक फेस्टिवल इसके
लिए ही आयोजित करना चाहिए। मगर ऐसा हो नहीं पा रहा है, इसलिए
यह कह सकते हैं कि थिएटर में बहुत ज्यादा एक्सपेरिमेंट्स (जो अपने ट्रेडिशन को
ध्यान में रखकर नहीं किए जाएंगे) हमें अंततः दर्शकों से
दूर कर देंगे।
रंगमंच में
एक्सपेरिमेंट्स वैसे आजकल किस-किस तरह के हो रहे हैं?
थिएटर में इन
दिनों कई नई फॉर्म्स देखने को मिल रही हैं। इनमें न्यू मीडिया, मल्टीमीडिया, डांस थिएटर, क्लाउनिंग और भी कई स्तरों पर प्रयोग हो
रहे हैं।
क्लाउनिंग क्या
है?
यह एक तरह की
मिमिक आर्ट फॉर्म है। यह इटली की पैदाइश है, वहां के लोक रंगमंच में इसे खूब देखा जा
सकता है। मैं सैमुअल बैकेट के ‘वेटिंग फॉर गोदो’ में क्लाउनिंग एलिमेंट्स पाता हूं और मैं इस
प्ले को इस फॉर्म के साथ मंच पर लाने की तैयारी में हूं।
‘एनएसडी’
में आने से आपको क्या फायदे हुए?
‘एनएसडी’
में आने के बाद सबसे बड़ा फायदा मुझे यह हुआ कि मैंने भारतीय रंगमंच
के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय रंगमंच क्या है, यह भी जाना। पहले
मैं केवल एक तरह से देखता था, ‘एनएसडी’ में आने के बाद कई तरह से चीजों को देखने लगा।
इन दिनों किस
प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं?
मैं जल्द ही ‘दि इयर ऑव् दि टाइगर’
नाम का एक प्ले करने जा रहा हूं। अभी इस पर रिसर्च और स्क्रिप्ट
वर्क चल रहा है। अक्टूबर में इसकी रिहर्सल होगी और दिसंबर में इसे प्रस्तुत करने
की योजना है। यह प्ले चाइना टाउंस पर है। यह एक ऐसी अलग ढंग की कहानी होगी,
जिसे इससे पहले कभी मंच पर नहीं देखा गया होगा। इस प्ले को हम उन सब
देशों में लेकर जाएंगे, जहां-जहां चाइना टाउंस रहे हैं।
इस प्ले की भाषा
क्या होगी?
अंग्रेजी।
आपके प्ले ‘हेयर’ की भी काफी चर्चा रही, इसके बारे में कुछ बताएं?
1960 के दशक में
अमेरिका में हुए हिप्पी मूवमेंट पर यह प्ले फोकस था। यह काफी म्यूजिकल प्ले था।
इसके लिए दुनिया भर के संगीतज्ञों को हमने अपने साथ जोड़ा। ‘हेयर’ में हिप्पियों की सच्चाई को समझने की एक कोशिश की गई।
हां, यह भी एक काफी अलग ढंग
का प्ले था। इसमें मैंने पौराणिक मिथकीय चरित्रों को मॉडनाईज किया। इस प्ले में
मेरे सीता और राम गिटार बजाते हैं और जैज गाते हैं।
थिएटर कैसे
बचेगा? या प्रश्न यह भी हो सकता है कि कैसा थिएटर बचेगा?
थिएटर तभी बचेगा, जब उसमें क्वालिटी बचेगी।
आपको थिएटर में वे चीजें देनी होगी जो सिनेमा, टेलीविजन,
इंटरनेट और मीडिया नहीं दे पा रहा है। जब
आप ये चीजें देंगे तो दर्शक जरूर आएंगे और ऐसी चीजें थिएटर में कम हो रही हैं,
लेकिन हो रही हैं, इसलिए गए कुछ वक्त से थिएटर
आडियंस बढ़ी है।
‘किंगडम
ऑव् ड्रीम्स’?
हां, लेकिन मुझे नहीं पता कि
इससे कितना फायदा जेनुइन थिएटर को होगा। लेकिन कम से कम यह तो है कि इसके जरिए
थिएटर से जुड़े लोगों को अच्छा पैसा मिल रहा है। क्योंकि ‘किंगडम
ऑव् ड्रीम्स’ का स्केल काफी लार्ज है, लेकिन
यहां कोई मैसेज नहीं है बस एंटरटेनमेंट है और यह चीज आपको आनंद तो देती है,
मगर विचार नहीं।
‘दि
इयर ऑव् दि टाइगर’ के बाद?
इस प्ले के बाद
में जनवरी में यूएसए जा रहा हूं। वहां कुछ यूनिवर्सिटीज में कुछ प्रोजेक्ट्स देखने
हैं और इसके लिए करीब डेढ़ साल तक मुझे वहां रहना होगा।
कहीं आप वहीँ बस
तो नहीं जाएंगे?
कैसी बात कर रहे
हैं, इसका तो सवाल ही नहीं उठता। भला मैं कोलकाता, लखनऊ,
दिल्ली, राजस्थान वहां कहां पाऊंगा? वहां मेरे मार्फत किया गया थिएटर अमेरिकन
थिएटर होगा ‘भारतीय थिएटर’ नहीं। मैं ‘भारतीय थिएटर’ करना चाहता हूं और इसलिए मैं कभी भारत
को छोड़कर नहीं जा सकता।
अविनाश मिश्र थिएटर में रूचि रखते हैं और युवा पत्रकार हैं. इनसे 9818791434और darasaldelhi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है